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बुधवार, 14 अगस्त 2013

मध्यप्रदेश का इतिहास


भारत के केन्द्र में स्थित मध्यप्रदेश देश का हृदयस्थल कहलाता है। भू-वैज्ञानिक दृष्टि से यह भारत का प्राचीनतम भाग है। हिमालय से भी पुराना यह भूखण्ड किसी समय उस संरचना का हिस्सा था जिसे गोंडवाना महाद्वीप कहा गया है। भारतीय इतिहास का मध्यप्रदेश से बहुत पुराना संबंध है। भारतीय इतिहास का मध्यप्रदेश से इतिहास को निम्नानुसार बांटा जा सकता है।
  • प्रागैतिहासिक मध्यप्रदेश
  • पाषाण एवं ताम्रकाल
  • प्राचीन काल
  • शुंग और कुषाण
  •  मध्यकाल
  • मुगल काल
  • भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम और मध्यप्रदेश
.प्रागैतिहासिक मध्यप्रदेश
 प्रदेश के विभिन्न भागों में किए गए उत्खनन और खोजों में प्रागैतिहासिक सभ्यता के चिन्ह मिले हैं। आदिम प्रजातियां नदियों के काठे और गिरी-कंदराओं में रहती थी। जंगली पशुओं में सिंह, भैंसे, हाथी और सरी-सृप आदि प्रमुख थे। कुछ स्थानों पर "हिप्पोपोटेमस" के अवशेष मिले हैं। शिकार के लिए ये नुकीले पत्थरों औरहड्डियों के हथियारों का प्रयोग करते थे। मध्यप्रदेश के भोपाल, रायसेन, छनेरा, नेमावर, मोजावाड़ी, महेश्वर, देहगांव, बरखेड़ा, हंडिया, कबरा, सिघनपुर, आदमगढ़, पंचमढ़ी, होशंगाबाद, मंदसौर तथा सागर के अनेक स्थानों पर इनके रहने के प्रमाण मिले हैं।
इस काल के मानव ने अपनी कलात्मक अभिरूचियों की भी अभिव्यक्ति की हैं। होशंगाबाद के निकट की गुलओं, भोपाल के निकट भीमबैठका की कंदराओं तथा सागर के निकट पहाड़ियों से प्राप्त शैलचित्र इसके प्रमाण हैं।
ये शैलचित्र मंदसौर की शिवनी नदी के किनारे की पहाड़ियों, नरसिंहगढ़, रायसेन, आदमगढ़, पन्ना रीवा, रायगढ़ और अंबिकापुर की कंदराओं में भी प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। कुछ यूरोपीय विद्वानों ने इस राज्य का पूर्व, मध्य एवं सूक्ष्माश्मीय काल ईसा से 4000 वर्ष पूर्व का माना है। दूसरी ओर डॉ. सांकलिया इस सभ्यता को ईसा से 1,50,000 वर्ष पूर्व की मानते हैं।

.पाषाण एवं ताम्रकाल
 सम्यता का दूसरा चरण पाषण एवं ताम्रकाल के रूप में विकसित हुआ है। नर्मदा की सुरम्य घाटी में ईसा से 2000 वर्ष पूर्व यह सभ्यता फली फूली थी। यह मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के समकालीन थी। महेश्वर, नावड़ा, टोड़ी, कायथा, नागदा, बरखेड़ा, एरण आदि इसके केन्द्र थे। इन क्षेत्रों की खुदाई से प्राप्त पुरावशेषों से इस सभ्यता के बारे में जानकारी मिलती है। उत्खनन में मृदभण्ड, धातु के बर्तन एवं औजार आदि मिले हैं। बालाघाट एवं जबलपुर जिलों के कुछ भागों में ताम्रकालीन औजार मिले हैं। इनके अध्ययन से ज्ञात होता है कि विश्व एवं देश के अन्य क्षेत्रों के समाप मध्यप्रदेश के कई भागों में खासकर नर्मदा, चंबल, बेतवा आदि नदियों के किनारों पर सभ्यता का विकास हुआ था। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के एक दल ने सन् 1932 में इस सभ्यता के चिन्ह प्रदेश के जबलपुर और बालाघट जिलों से प्राप्त किए थे।
डा. एच.डी. सांकलिया ने नर्मदा घाटी के महेश्वर, नावड़ा, टोड़ी, चोली और डॉ.बी.एस. वाकणकर ने नागदा-कायथा में इसे खोजा था। इसका काल निर्धारण ईसा पूर्व 2000 से लेकर 800 ईसा पूर्व के मध्य किया गया है।
इस काल में यह सभ्यता आदिम नहीं रह गई थी। घुमक्कड़ जीवन अब समाप्त हो गया था। खेती की जाने लागी थी। अनाजों और दालों का उत्पादन होने लगा था। कृषि उपकरण धातु के बनते थे। मिट्टी और धातु के बर्तनों का उपयोग होता था। इन पर चित्रकारी होती थी। पशुओं में प्रमुख रूप से गाय,बकरी,कुत्ता आदि पाले जाते थे।

.प्राचीन काल
 आर्यों के भारत आगमन के साथ भारतीय इतिहास में नया मोड़ आया। ऋ़ग्वेद में "दक्षिणापथ" और "रेवान्तर" शब्दों का प्रयोग किया गया। इतिहासकार बैवर के मत से आर्यों को नर्मदा और उसके प्रदेश की जानकारी थी। आर्य पंचनद प्रदेश (पंजाब) से अन्य प्रदेश में गए। महर्षि अगस्त के नेतृत्व में यादवों का एक कबीला इस क्षेत्र में आकर बस गया। इस तरह इस क्षेत्र का आर्यीकरण प्रारंभ हुआ। शतपथ ब्राहम्ण के अनुसार विश्वामित्र के 50 शापित पुत्र यहां आकर बसे। कालांतर में अत्रि, पाराशर, भारद्वाज, भार्गव आदि भी आए। लोकमान्य तिलक तथा स्वामी दयानंद ने भारत (तिब्बत) को ही आर्यों का मूल निवास स्थान बताया है।
पौराणिक गाथाओं के अनुसार कारकोट नागवंशी शासक नर्मदा के काठे के शासक थे। मौनेय गंधर्वों से जब उनका संघर्ष हुआ तो अयोध्या के इक्ष्वाकु नरेश मांधाता ने अपने पुत्र पुरूकुत्स को नागों के सहायतार्थ भेजा। उसने गंधर्वों को पराजित किया।
नागकुमारी नर्मदा का विवाह पुरूकुत्स से कर दिया गया। पुरूकुत्स ने रेवा का नाम नर्मदा कर दिया। इसी वंश के मुचकुंद ने रिक्ष और परिपात्र पर्वत मालाओं के बीच नर्मदा तट पर अपने पूर्वज नरेश मांधाता के नाम पर मांधाता नगरी (ओंकारेश्वर-मांधाता) बसाई।
यादव वंश के हैहय शासकों के काल में इस क्षेत्र का वैभव काफी निखरा। हैहय राजा माहिष्मत ने नर्मदा किनारे माहिष्मति नगरी बसाई। उन्होंने इक्ष्वाकुओं और नागों को हराया। मध्यप्रदेश के अतिरिक्त उत्तर भारत के कई क्षत्र उनके अधीन थे। इनके पुत्र भद्रश्रेण्य ने पौरवों को पराजित किया। कार्तवीर्य अर्जुन इस वंश के प्रतापी सम्राट थे। उन्होंने कारकोट वंशी नागों, अयोध्या के पौरवराज, त्रिशंकु और लंकेश्वर रावण को हराया। कालांतर में गुर्जर देश के भार्गवों से संघर्ष में हैहयों की पराजय हुई। इनकी शाखओं ने तुंडीकेरे (दमोह), त्रिपुरी, दर्शाण (विदिशा), अनूप (निमाड़), अवंति आदि जनपदों की स्थापना की

.शुंग और कुषाण
मौर्यों के पतन के बाद शुंग मगध के शासन हुए। सम्राट पुष्यमित्र शुंग विदिशा में थे। इनके पूर्वजों को अशोक पाटलिपुत्र ले गए थे। उन्होंने विदिशा को अपनी राजधानी बनाया। अग्निमित्र महाकौशल, मालवा, अनूप (विंध्य से लेकर विदर्भ) का राज्यापाल था सातवाहनों ने भी त्रिपुरी, विदिशा, अनूप आदि अपने अधीन किए।
गौतमी पुत्र सातकर्णी की मुद्राएं होशंगाबाद, जबलपुर, रायगढ़ आदि में मिली हैं। सातवाहनों ने ईसा पूर्व की दूसरी सदी से 100 ईसवी तक शासन किया था।
इसी दौरान शकों के हमले होने लगे थे। कुषाणों ने भी कुछ समय तक इस क्षेत्र पर शासन किया। कुषाण काल की कुछ प्रतिमाएं जबलपुर से प्राप्त हुई हैं। कर्दन वंश उज्जयिनी और छिंदवाड़ा में राज्यारूढ़ था। शक क्षत्रप रूद्रदमन प्रथम ने सातवाहनों को हराकर दूसरी शताब्दी में पश्चिमी मध्यप्रदेश जीता। उत्तरी मध्य भारत में नागवंश की विभिन्न शाखाओं ने कांतिपुर, पद्मावती और विदिशा में अपने राज्य स्थापित किए। नागवंश नौ शताब्दियों तक विदिशा में शासन करता रहा। शकों से संघर्ष हो जोने के बाद वे विंध्य प्रदेेश चले गये वहां उन्होंने किलकिला राज्य की स्थापना कर नागावध को अपनी राजधानी बनाया। त्रिपुरी और आसपास के क्षेत्रों में बोधों वंश ने अपना राजय स्थापित किया। आटविक राजाओं ने बैतूल में, व्याघ्रराज ने बस्तर में तथा महेन्द्र ने भी बस्तर में अपने राजय स्थापित किए। ये समुद्र गुप्त के समकालीन थे। चौथी शताब्दी में गुप्तों के उत्कर्ष के पूर्व विंध्य शक्ति के नेतृत्व में वाकाटकों ने मध्यप्रदेश के कुछ भागों पर शासन किया। राजा प्रवरसेन ने बुंदलेखण्ड से लेकर हैदराबाद तक अपना आधिपत्य जमाया। छिंदवाड़ा, बैतूल, बालाघाट आदि में वाकाटकों के कई ताम्र पत्र मिले हैं।


 मध्यकाल
 हर्ष की मृत्यु के बाद सन् 648 में मध्यप्रदेश अनेक छोटे-बड़े राज्यों में बंट गया। मालवा में परमारों ने, विंध्य में चंदेलों ने और महाकौशल में कल्चुरियों की एक शाखा ने त्रिपुरा में शासन कायम किया। इस वंश के शासकों में कोमल्लदेव, युवराजदेव, कोमल्लदेव द्वितीय और गांगेयदेव ने दक्षिण कौशल तक अपनी सीमाएं बढ़ाई।
विदिशा कुछ समय तक राष्ट्रकूटों के अधीन रहा। इसके अवशेष ग्वालियर, धमनार, ग्यारसपुर आदि में पाए जाते हैं। कुछ काल तक कालयकुब्ज के गुर्जर-प्रतिहार वंश के नरेशों और दक्षिण के राष्ट्रकूटों ने भी मालवा के कुछ भागों पर शासन किया। ग्वालियर और आसपास के क्षेत्र महेंद्रपाल गड़वाल के अधीन थे। उस समय राष्ट्रकूट इंद्र तृतीय ने मालवा पर हमला कर अनूप व उज्जयिनी जीता था। दसवीं सदी के लगभग मालवा में परमारों, जो राष्ट्रकूटों की एक शाखा थी, ने एक स्वतंत्र राज्य स्थापित किया। इन्होंने धार को अपनी राजधानी बनाया। इस वंश में मुंज एवं भोज ने सर्वाधिक ख्याति अर्जित की। मुंज ने त्रिपुरा के कल्चुरियों, राजस्थान के चौहानों ,गुजरात और कर्नाटक के चालुक्यों से संघर्ष किया। मुंज संस्कृत का महान ज्ञाता एवं साहित्यकार था।
भोज ने अपने पूर्ववर्ती शासकों की नीति को जारी रखा। उसने कल्याणी के चालुक्यों से संघर्ष् में सफलता प्राप्त की। त्रिपुरा के कल्चुरि नरेश गांगेयदेव को भी परास्त किया। लाट, कोंकण, कन्नौज आदि स्थानों के शासकों से उसने युद्ध किया। चितौड़, बांसवाड़ा, डूंगरपुर, भेलसा और भोपाल से गोदावरी तक का क्षेत्र उसकी सीमा में था। भोज ने अनेक ग्रंथों की रचना की थी। उन्होंने भोपाल के निकट भोजसागर एवं भोजपुर नगर की स्थापना की तथा वहाँ विशाल शिव मंदिर बनवाया जिसे मध्यभारत का सोमनाथ कहा गया है।
हर्ष की मृत्यु के बाद विंध्यप्रदेश में चंदेलों ने एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। इस वंश के प्रसिद्ध शासकों में रोहित, हर्ष, यशोवर्धन और धंग है। धंग ने महमूद गजनवी के आक्रमण के विरूद्ध अफगानिस्तान के शाही नरेश जयपाल को सैनिक सहायता दी थी। गण्ड दूसरा प्रतापी नरेश था। चंदेलों ने कान्यकुब्ज, अंग, कांची, एवं कल्युरियों से संघर्ष किया।
इस वंश का अंतिम नरेश परमादिदेव था। यह पृथ्वीराज चौहान का समकालीन था। फरिश्ता के अनुसार सन् 1202 में कालिंजर पर हमला कर ऐबक ने उसे जीता था। चंदेलों ने खजुराहों में विश्व प्रसिद्ध मंदिरों का निर्माण कराया।
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सन् 1192 में तराइन की दूसरी लड़ाई में मुहम्मद गौरी ने चौहानों की सत्ता दिल्ली से उखाड़ फैंकी। उसने अपने सिपहसालार कुतुबुद्दीन एबन को दिल्ली का शासक नियुक्त किया। गौरी और ऐबक ने सन् 1196 में ग्वालियर के नरेश सुलक्षण पाल को हराया। उसने गौरी की प्रभुसत्ता स्वीकार कर ली। सन् 1200 में ऐबक ने पुन: ग्वालियर पर हमला किया। परिहारों ने ग्वालियर मुसलमानों को सौंप दिया। इल्तुतमिया ने सन् 1231-32 में ग्वालियर के मंगलदेव को हराकर विदिशा, उज्जैन, कालिंजर, चंदेरी आदि पर भी विजय प्राप्त की। उसने भेलसा और ग्वालियर में मुस्लिम गवर्नन नियुक्त किए। सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने मालवा के सभी प्रमुख स्थान जीते। एन-उल-मुल्कमुल्तानी को मालवा का सूबेदार बनाया गया। 
मालवा तुगलकों के भी अधीन रहा। तुगलकों के पतन के बाद मालवा में स्वतंत्र सल्तनत की स्थापना दिलावर खाँ गौरी ने की। माण्डू के सुल्तानों में हुशंगशाह प्रसिद्ध हुआ। उसने होशंगाबाद नगर बसाया। मालवा के प्रसिद्ध खिलजी द्वितीय प्रमुख थे। पश्चिमी मध्यप्रदेश का एक बड़ा क्षेत्र इनके अधीन रहा।
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ग्वालियर सन् 1479 में पुन: स्वतंत्र हो गया। दिल्ली सल्तनत के ये पतन के दिन थे। गढ़ा मंडला में गोंडों ने अपने राज्य की स्थापना की। उन्होंने जबलपुर एवं महाकौशल क्षेत्र अपने अधीन किए। गोंडों की शाखा ने गढ़कटंगा को अपनी राजधानी बनाई। मुस्लिम इतिहासकारों ने इनके राज्य का नाम गोंडवाना बताया है।
जादोराय इस वंश का संस्थापक था। इस वंश का दूसरा राजा संग्रामशाह था। इसके अधीन 52 गढ़ थे। जबलपुर, दमोह, सागर, सिवनी, नरसिंहपुर, मंडला, होशंगाबाद, बैतूल, छिंदवाड़ा, नागपुर और बिलासपुर आदि क्षेत्र भी इसके अधीन थे। संग्रामशाह ने सन् 1480 से 1542 तक शासन किया। इसके बाद दलपतशाह शासक बना। इस वंश को सर्वाधिक कीर्ति रानी दुर्गावती के कारण मिली। अबुलफजल ने गोंडवाना राज्य की सीमा पूर्व में रतनपुर (झारखंड), पश्चिम में रायसेन, उत्तर में पन्ना और दक्षिण में दमन सूबे तक बताई है।

मुगलकाल  
मराठों के उत्कर्ष और ईस्ट इंडिया कंपनी के आगमन के साथ मध्यप्रदेश में इतिहास का नया युग प्रारंभ हुआ। पेशवा बाजीराव ने उत्तर भारत की विजय योजना का प्रारंभ किया। विंध्यप्रदेश में चंपत राय ने औरंगजेब की प्रतिक्रियावादी नीतियों के खिलाफ संघर्ष छेड़ दिया था।
चंपतराय के पुत्र छत्रसाल ने इसे आगे बढ़ाया। उन्होंने विंध्यप्रदेश तथा उत्तरी मध्यभारत के कई क्षेत्र व महाकौशल के सागर आदि जीत लिए थे। मुगल सूबेदार बंगश से टक्कर होने पर उन्होंने पेशवा बाजीराव को सहायतार्थ बुलाया व फिर दोनों ने मिलकर बंगश को पराजित किया।
इस युद्ध में बंगश को स्त्री का वेष धारण कर भागना पड़ा था। इसके बाद छत्रसाल ने पेशवा बाजीराव को अपना तृतीय पुत्र मानकर सागर, दमोह, जबलपुर, धामोनी, शाहगढ़, खिमलासा और गुना, ग्वालियर के क्षेत्र प्रदान किए। पेशवा ने सागर, दमोह में गोविंद खेर को अपना प्रतिनिधि नियुक्त किया। उसने बालाजी गोविंद का अपना कार्यकारी बनाया। जबलपुर में बीसा जी गोविंद की नियुक्ति की गई।
गढ़ा मंडला में गोंड राजा नरहरि शाह का राज्य था। मरोठों के साथ संघर्ष में आबा साहब मोरो व बापूजी नारायण ने उसे हराया। कालांतर में पेशवा ने रघुजी भोसले को इधर का क्षेत्र दे दिया। भोसले का पास पहले से नागपुर का क्षेत्र था। यह व्यवस्था अधिक समय तक नहीं टिक सकी। अंग्रेज सारे देश में अपना प्रभाव बढ़ाने में लगे हुए थें। मराठों के आंतरिक कलह से उन्हें हस्तक्षेप का अवसर मिला। सन् 1818 में पेशवा को हराकर उनहोंने जबलपुर-सागर क्षेत्र रघुजी भोसले से छीन लिया। सन् 1817 में लार्ड हेस्टिंग्स ने नागपुर के उत्तराधिकार के मामले में हस्तक्षेप किया और अप्पा साहब को हराकर नागपुर एवं नर्मदा के उत्तर का सारा क्षेत्र मराठों से छीन लिया। उनके द्वारा इसमें निजाम का बरार क्षेत्र भी शामिल किया गया। सहायक संधि के बहाने बरार को वे पहले ही हथिया चुके थे। इस प्रकार अंग्रेजों ने मध्यप्रांत व बरार को मिला-जुला प्रांत बनाया। महाराज छत्रसाल की मृत्यु के बाद विंध्यप्रदेश, पन्ना, रीवा, बिजावर, जयगढ़, नागौद आदि छोटी-छोटी रियासतों में बंट गया। अंग्रेजों ने उन्हों कमजोर करने के लिए आपस में लड़ाया और संधियाँ की। अलग-अलग संधियों के माध्यम से इन रियासतों को ब्रिटिश साम्राज्य के संरक्षण में ले लिया गया।
सन् 1722-23 में पेशवा बाजीराव ने मालवा पर हमला कर लूटा था। राजा गिरधर बहादुर नागर उस समय मालवा का सूबेदार था। उसने मराठों के आक्रमण का सामना किया जयपुर नरेश सवाई जयसिंह मराठों के पक्ष में था। पेशवा के भाई चिमनाजी अप्पा ने गिरधर बहादुर और उसके भाई दयाबहादुर के विरूद्ध मालवा में कई अभियान किए। सारंगपुर के युद्ध में मराठों ने गिरधर बहादुर को हराया। मालवा का क्षेत्र उदासी पवार और मल्हारराव होलकर के बीच बंट गया। बुरहानपुर से लेकर ग्वालियर तक का भाग पेशवा ने सरदार सिंधिया को प्रदान किया। इसके साथ ही सिंधिंया ने उज्जैन, मंदसौर तक का क्षेत्र अपने अधीन किया। सन् 1731 में अंतिम रूप से मालवा मराठों के तीन प्रमुख सरदारों पवार (धार एवं देवास) होल्कर (पश्चिम निमाड़ से रामपुर-भानपुरा तक ) और सिंधिया (बुहरानपुर, खंडवा, टिमरनी, हरदा, उज्जैन, मंदसौर व ग्वालियर)ʔ के अधीन हो गया।
भोपाल पर भी मराठों की नजर थी। हैदराबाद के निजाम ने मराठों को रोकने की योजना बनाई, लेकिन पेशवा बाजीराव ने शीघ्रता की और भोपाल जा पहुंचा तथा सीहोर, होशंगाबाद का क्षेत्र उसने अधीन कर लिया। सन् 1737 में भोपाल के युद्ध में उसने निजाम को हराया। युद्ध के उपरांत दोनों की संधि हुई। निजाम ने नर्मदा-चंबल क्षेत्र के बीच के सारे क्षेत्र पर मराठों का आधिपत्य मान लिया। रायसेन में मराठों ने एक मजबूत किले का निर्माण किया। मराठों के प्रभाव के बाद एक अफगान सरदार दोस्त मोहम्मद खाँ ने भोपाल में स्वतंत्र नवाबी की स्थापना की। बाद में बेगमों का शासन आने पर उन्होंनें अंग्रेजों से संधि की और भोपाल अंग्रेजों के संरक्षण में चला गया।
अंग्रजों ने मराठों के साथ पहले, दूसरे, तीसरे, और चौथे युद्ध में क्रमश: पेशवा, होल्कर, सिंधिया और भोसले को परास्त किया। पेशवा बाजीराव द्वितीय के काल में मराठा संघ में फूट पड़ी और अंग्रेजों ने उसका लाभ उठाया। अंग्रेजों ने सिंधिया से पूर्वी निमाड़ और हरदा-टिमरनी छीन लिया और मध्यप्रांत में मिला लिया। अंग्रेजों ने होल्कर को भी सीमित कर दिया और मध्यभारत में छोटे-छोटे राजाओं को जो मराठों के अधीनस्थ सामंत थे, राजा मान लिया। मध्यभारत में सेंट्रल इंडिया एजेंसी स्थापित की गई। मालवा कई रियासतों में बट गया। इन रियासतों पर प्रभावी नियंत्रण हेतु महू, नीमच, आगरा, बैरागढ़ आदि में सैनिक छावनियाँ स्थापित की।

 भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम और मध्यप्रदेश
सन् 1857 की क्रांति में मध्यप्रदेश का बहुत असर रहा। बुदेला शासक अंग्रेजों से पहले से ही नाराज थे। इसके फलस्वरूप 1824 में चंद्रपुर (सागर) केजवाहर सिंह बुंदेला, नरहुत के मधुकर शाह, मदनपुर के गोंड मुखिया दिल्ली शाह ने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत कर दी।
इस प्रकार सागर, दमोह, नरसिंहपुर से लेकर जबलपुर, मंडला और होशंगाबाद के सारे क्षेत्र में विद्रोह की आग भड़की, लेकिन आपसी सामंजस्य और तालमेल के अभाव में अंग्रेज इन्हें दबाने में सफल हो गए।
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प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सन् 1857 में मेरठ, कानपुर, लखनऊ, दिल्ली, बैरक्पुर आदि के विद्रोह की लपटें यहाँ भी पहुंची। तात्या टोपे और नाना साहेब पेशवा के संदेश वाहक ग्वालियर, इंदौर, महू, नीमच, मंदसौर, जबलपुर, सागर, दमोह, भोपाल, सीहोर और विंध्य के क्षेत्रों में घूम-घूमकर विद्रोह का अलख जगाने में लग गए। उन्होंने सथानीय राजाओं और नवाबों के साथ-साथ अंग्रेजी छावनियों के हिंदुस्तानी सिपाहियों से संपर्क बनाए। इस कार्य के लिए "रोटी और कमल का फूल" गांव-गांव में घुमाया जाने लगा। मुगल शहजादे हुमायूँ इन दिनों रतलाम, जावरा, मंदसौर, नीमच क्षेत्रो ं का दौरा कर रहे थे। इन दौरों के परिणामस्वरूप 3 जून 1857 को नीमच छावनी में विद्रोह भड़क गया और सिपाहियों ने अधिकारियों को मार भगाया। मंदसौर में भी ऐसा ही हुआ। 14 जून को ग्वालियर छावनी केसैनिकों ने भी हथियार उठा लिए। इस तरह शिवपुरी, गुना, और मुरार में भी विद्रोह भड़का।
उधर तात्या टोपे और झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने ग्वालियर जीता। महाराजा सिंधिया ने भागकर आगरा में अंग्रेजों के यहाँ शरण ली। 1 जुलाई 1857 को शादत खाँ के नेतृत्व में होल्कर नरेश की सेना ने छावनी रेसीडेंसी पर हमला कर दिया। कर्नल ड्यूरेंड, स्टूअर्ट आदि सीहोर की ओर भागे, पर वहाँ भी विद्रोह की आग सुलग चुकी थी। भोपाल की बेगम ने अंग्रेज अधिकारियों को सरंक्षण दिया। अजमेरा के राव बख्तावरसिंह ने भी विद्रोह किया और धार भेपाल आदि क्षेत्र विद्रोहियों के कब्जे में आ गए। महू की सेना ने भी अंग्रेज अधिकारियों को मार भगाया।
मंडलेश्वर, सेंधवा, एड़वानी आदि क्षेत्रों में इस क्रांति का नेतृत्व भीमा नायक कर रहा था। शादत खाँ, महू इंदौर के सैनिकों के साथ दिल्ली गया। वहां बादशाह जफर के प्रति मालवा के क्रांतिकारियों ने अपनी वफादारी प्रकट की। सागर, जबलपुर और शाहगढ़ भी क्रांतिकारियों के केंद्र थे। विजय राधोगढ़ के राजा ठाकुर सरजू प्रसाद इन क्रांतिकारियों के अगुआ थे। जबलपुर की 52वीं रेजीमेंट उनका साथ दे रही थी। नरसिंहपुर में मेहरबान सिंह ने अंग्रेजों को खदेड़ा। मंडला में रामगढ़ की रानी विद्रोह की अगुआ थी। इस विद्रोह की चपेट में नेमावर, सतवास और होशंगाबाद भी आ गए। रायपुर, सोहागपुर और संबलपुर ने भी क्रांतिकारियों का साथ दिया। मध्यप्रदेश में क्रांतिकारियों में आपसी सहयोग और तालमेल का अभाव था इसलिए अंग्रेज इन्हें एक-एक कर कुचलन में कामयाब हुए। सर ह्यूरोज ग्वालियर जीत लिया। महू, इंदौर, मंदसौर, नीमच के विद्रोह को कर्नल ड्यूरेण्ड, स्टुअर्ट और हेमिल्टन ने दबा दिया। लेफिटनेंट रॉबर्ट, कैप्टन टर्नर, स्लीमन आदि महाकौशल क्षेत्र में विद्रोह को दबाने में सफल हुए। दो वर्ष में क्रांति की आग ठंडी पड़ी और क्रांतिकारियों को कठोर दंड दिया गया।
सन् 1192 में तराइन की दूसरी लड़ाई में मुहम्मद गौरी ने चौहानों की सत्ता दिल्ली से उखाड़ फैंकी। उसने अपने सिपहसालार कुतुबुद्दीन एबन को दिल्ली का शासक नियुक्त किया। गौरी और ऐबक ने सन् 1196 में ग्वालियर के नरेश सुलक्षण पाल को हराया। उसने गौरी की प्रभुसत्ता स्वीकार कर ली। सन् 1200 में ऐबक ने पुन: ग्वालियर पर हमला किया। परिहारों ने ग्वालियर मुसलमानों को सौंप दिया। इल्तुतमिया ने सन् 1231-32 में ग्वालियर के मंगलदेव को हराकर विदिशा, उज्जैन, कालिंजर, चंदेरी आदि पर भी विजय प्राप्त की। उसने भेलसा और ग्वालियर में मुस्लिम गवर्नन नियुक्त किए। सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने मालवा के सभी प्रमुख स्थान जीते। एन-उल-मुल्कमुल्तानी को मालवा का सूबेदार बनाया गया।





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